शुक्रवार, 15 अगस्त 2008

दास्ताँ - ऐ - जीस्त





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कोई गाँव जलाता है किसी का दिल दहलता है
हयुले में हर एक लेकिन खुदा का नूर लगता है !!!

जमीन पर जो भी आएगा कभी आंसू बहायेगा
जफ़र - ओ - कातिलों में भी मचलता दिल धड़कता है !!!

अजब सी है कहानी ये कहाँ पे ले के जाती है
वहीँ पर जिंदगानी है जहाँ सपना उजड़ता है !!!

तुझे हो क्यों पता "नादां" बशर के दर्द हैं कितनें
कहीं पर चाँद होता है कहीं सूरज निकलता है !!!

उत्पल कान्त मिश्रा "नादां"
अगस्त १४; २००८
२०:२२



मंगलवार, 5 अगस्त 2008

मेरी प्रियतमा को समर्पित


















प्रियतमे !!!!


प्रियतमे !!!!
याद है मुझको, हर वो पल
जब तुम थी , न थी , न हो
फिरभी तुम मेरा जीवन थी , है , हो ....... !!!!




याद है मुझको , हर वो पल
जब रश्मिरथी की प्रथम किरणों संग
तेरी बोझल पलकों को अपलक देखा करता था
और कोकिला वाणी को सुन प्रमादित होता था
पुलकित ह्रदय ले इस प्राकृत सरोवर का
कलरव का , नियति तांडव का , मैं कृतार्थ होता था ...... !!!!


याद है मुझको , हर वो पल
जब ह्रदय व्यथित ले , शीथल पथिक सा
में भवन आता था , तेरे अंचल को पाता
और स्वर्ण रेखाओं सम भविष्य का
ताना बाना बुन स्वस्थ मन ले सो पता था
और उषा की किरणों के आते यह पथिक फिर
उस अनिश्चित पथ पर युद्ध करनें जाता था .......... !!!!



याद है मुझको , हर वो पल
तेरा मुस्काना , जैसे मेरा जीवन
तेरा इठलाना , जैसे मेरी कल्पना
तेरा गुस्साना , जैसे मेरा काल ग्रास
तेरा रूठना , जैसे कुहरे की धूप
और तेरा मान जाना , मोक्ष सम ...... !!!!



याद है मुझको , हर वो पल
मानो कलि की कालिका
बिछा रही हो हो माया जाल
और चारा सा तेरा अल्हर्पण
मोह पाश में दिग्भ्रमित हुआ सा
उस पथ को जाता था
जहाँ निशा ही दिवा हुई हो
और दिवा है चिर निःशब्द
याद है मुझको , हर वो पल
वो दावानल लील रहा था
मेरे जीवन का जीवन ......... !!!!



याद है मुझको, हर वो पल
वो तेरा मुस्काना, इठलाना,
गुस्साना, रूठना और मान जाना
वो मेरा जीवन था , है , होगा ...... !!!!




याद है मुझको , हर वो पल
और आश लिए नव सूर्य
हर प्रातः मैं देखा करता हूँ ..... !!!!




उत्पल कान्त मिश्र "नादां"
दिल्ली , अगस्त ४ ; 2००८
१७:५७


शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

Nazm





















जिधर ले चले चलो इतना बता दो पे
कोई मयखाना वां है कि नेस्त

सागर - ओ - मीना कि महफ़िल से जो उठा मैं
मेरे सुखन कि जां रहेगी नेस्त

गर मेरी जिंदगी रवाही रहनें दो पैमाना आगे
भर आया अभी सोज - ऐ - निहां नेस्त

क्या दिखाए बिना मय मजा मंजर का नेस्त
पीता चलूँ फिर सफर बेमजा नेस्त !!!

उत्पल कान्त मिश्रा "नादां"
दिल्ली; जुलाई १६; २००८
२१ :३७ PM