सोमवार, 12 दिसंबर 2011

ख्वाब





(Pic by my elder brother: Pranav Mishra)









मेरे घर के पीछे
कभी सूरज निकलता था
चहचहाती थी चिड़िया, और
महकता बाग़ होता था ........... !!
**
भगत को भजते - गाते लोग
जाते थे गंगा तट की ओर
बजते थे मंदिरों में ढोल
ऐसे को कहते थे कभी भोर
**

शाम को घर में सबका होना
बाबूजी संग चाय और चबेना
रात को काली मंदिर जाना
अजब से इक सुकून का होना

**

शहर में बाग़ होते थे
आम के मंजर महकते थे
कभी कोयल भी गाती थी
बिना डर लोग टहलते थे

**

बड़ी छोटी थी दुनिया तब
जाने पहचाने से थे सब
दलानों पर की मज्लिशैं
न होती थी दीवाली कब

**

ये कैसी नींद है आयी
ये कैसा ख्वाब है आया
जगा दो कोई मुझको भाई
सुबह है फिर से जो आयी



उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई