शुक्रवार, 30 मई 2014

दग्ध





"दैदीप्यमान सूर्य" ! तुम्हें देखकर न जाने कितनों  के मानस पटल  पर  कितने प्रकार के विचार आविर्भूत होते होंगे I 

………… "मुंडे - मुंडे मतिर्भिनाः" I 

किन्तु एक बात अखंड है I जिसने भी तुम्हें देखा उसके मानस ने उससे कहा -
"शाक्ति " I  हाँ शक्ति  अभिव्यंजना ही  तो है तू I 

………… "अग्नि, दाह , पोषक , विनाशक  I "

किन्तु  "दैदीप्यमान सूर्य" !  जब भी मैनें तुम्हारी तरफ देखा ,  पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लगा मानो एक अद्भुत , विलगित संकेत दे रहा है तू I  मानो  कह रहे हो मुझसे -

ऐ मानव ! 
क्या देखता है मेरी तरफ
किस निर्णय पे आना चाहता है  ?
उसपर,
जहाँ  अनेक मानव 
तुझसे पहले भी पहुंचे ?
किन्तु,
अर्द्ध सत्य है मात्र वह I 

हाँ ,
शक्तिशाली हूँ मैं 
अग्नि है मुझमें I 
भयभीत सब मुझसे
देखो I 
परिभ्रमण करते मेरे 
चहुँ दिश , निर्निमेष, निःशब्द 
यह समस्त ग्रह - समूह I 

हाँ !
शक्ति हूँ मैं 
परिक्रमा करते सब मेरी 
किन्तु,
दूर - दूर रह I 

इतनी दूर कि  मैं चाह  कर भी अपने अंतस का स्पंदन उन तक नहीं पहुँचा पाता I ऐ मानव ! कभी सोचा है , इतने अनुयाइयों के रहते हुए भी कितना अकेला हूँ मैं I  हाँ, आज मात्र एक अग्नि - पिंड बन कर रह गया हूँ मैं I 

मेरी यह शक्ति - मेरी अग्नि - मुझे कितनी तीव्रता से जला  रही है आज I 
शेष क्या मुझमें 
मात्र,
दहन I 

ऐ मानव ! 
काश.......
मेरे समीप आ 
कोई मुझसे कहे -
"ए  दैदीप्यमान सूर्य !
ऐ बंधु I 
बहुत जल चुका तू अकेला 
ला , अब बाँट लूँ  मैं 
तुझसे तेरा दाह  थोड़ा "I I 

ऐ मानव ! अब तू ही सोच , किस काम की मेरे मेरी यह शक्ति  ………… !!

उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ "
१९८६