मंगलवार, 26 मई 2015

कैसी कैसी बातें ले हम बैठे



 कैसी कैसी बातें ले हम बैठे 
रात तन्हा थी कि दिन भी खो बैठे
मान ले ऐ दिल के राही हमसफ़र 
यूँ न तुम थे, यूँ न हम थे, कि था सहर l

ऐसी वैसी यादें ले क्यों बैठे 
चैन दिल का यूँ लुटा हम बैठे
रौशनी का दिया हम बुझा चल पड़े
देखने को सितारे कि अब हैं खड़े l

जैसे तैसे जिंदगी चलती रही
उठती गिरती और संभलती रही
संग कभी तन्हा कभी चलते रहें
इक जहर सा ये सफर है कि क्या कहें ?

कैसी कैसी बातें ले हम बैठे
छोटा सा ये सफर और हम बैठे 
आती जाती साँसों के ए रहगुज़र
यहाँ साथ पल का आ कि कर ले बसर ll


उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
     २६/०५/२०१५
         मुंबई, १४:४०  

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

निःशब्दों की व्याकुलता

शब्दों की स्तब्धता 

निःशब्दों की व्याकुलता 
उफ़ 
जीवन की यह आकुलता 
चीत्कार या कि व्यवहारिकता ll

.......... उत्पल कांत मिश्र "नादाँ"

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

क्या माँगूँ मैं हाथ पसारी ?




उद्बुद्ध करते तिमिर प्रकाश में 
अनगिन वैचारिक श्रृंखलाएँ 
यह उद्वेलन शीतल जो कर दे
वह दैदीप्य कहाँ से लायें ll  

ज्ञान समंद में उबडुब अज्ञानी 
भँवर पार कर ओ अवहारी 
बिन गुरु ज्ञान होत  नहीं तारी  
कि  क्या  माँगूँ मैं हाथ पसारी ?

…… उत्पल कांत मिश्र "नादाँ" 

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

आगोश में तेरी ऐ माँ जन्नत यहाँ क्योँ हो नहीं .......... !!



हो जर्द आँखें जिस जगह नलहत वहाँ क्योँ हो नहीं 
जलते हुए ख़्वाबों भरा फिर ये जहाँ क्योँ हो नहीं ……!!

फिरकापरस्ती ख़ल्क़ में हर - शू जहाँ बरपा करे 
दैर -ओ-हरम टूटा करें फित्ना निशाँ क्योँ हो नहीं ……!!

वो सर्द आहें और कहीं सिसकी किसी मासूम की 
तुझसे शहंशाहों यहाँ नफरत निहाँ क्योँ हो नहीं ....... !!

इक प्यार की बाकी रही मूरत अगर तो तू रही 
आगोश में  तेरी ऐ  माँ जन्नत यहाँ क्योँ हो नहीं .......... !!

तू इश्क़ ही खोज किये बेदर्द जमानें से रवां 
"नादाँ" तिरे गेहाँ - सकी का इम्तिहाँ क्यों हो नहीं …… !! 

उत्पल कान्त मिश्र  "नादाँ"