शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

आगोश में तेरी ऐ माँ जन्नत यहाँ क्योँ हो नहीं .......... !!



हो जर्द आँखें जिस जगह नलहत वहाँ क्योँ हो नहीं 
जलते हुए ख़्वाबों भरा फिर ये जहाँ क्योँ हो नहीं ……!!

फिरकापरस्ती ख़ल्क़ में हर - शू जहाँ बरपा करे 
दैर -ओ-हरम टूटा करें फित्ना निशाँ क्योँ हो नहीं ……!!

वो सर्द आहें और कहीं सिसकी किसी मासूम की 
तुझसे शहंशाहों यहाँ नफरत निहाँ क्योँ हो नहीं ....... !!

इक प्यार की बाकी रही मूरत अगर तो तू रही 
आगोश में  तेरी ऐ  माँ जन्नत यहाँ क्योँ हो नहीं .......... !!

तू इश्क़ ही खोज किये बेदर्द जमानें से रवां 
"नादाँ" तिरे गेहाँ - सकी का इम्तिहाँ क्यों हो नहीं …… !! 

उत्पल कान्त मिश्र  "नादाँ"