"दैदीप्यमान सूर्य" ! तुम्हें देखकर न जाने कितनों के मानस पटल पर कितने प्रकार के विचार आविर्भूत होते होंगे I
………… "मुंडे - मुंडे मतिर्भिनाः" I
किन्तु एक बात अखंड है I जिसने भी तुम्हें देखा उसके मानस ने उससे कहा -
"शाक्ति " I हाँ शक्ति अभिव्यंजना ही तो है तू I
………… "अग्नि, दाह , पोषक , विनाशक I "
किन्तु "दैदीप्यमान सूर्य" ! जब भी मैनें तुम्हारी तरफ देखा , पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लगा मानो एक अद्भुत , विलगित संकेत दे रहा है तू I मानो कह रहे हो मुझसे -
ऐ मानव !
क्या देखता है मेरी तरफ
किस निर्णय पे आना चाहता है ?
उसपर,
जहाँ अनेक मानव
तुझसे पहले भी पहुंचे ?
किन्तु,
अर्द्ध सत्य है मात्र वह I
हाँ ,
शक्तिशाली हूँ मैं
अग्नि है मुझमें I
भयभीत सब मुझसे
देखो I
परिभ्रमण करते मेरे
चहुँ दिश , निर्निमेष, निःशब्द
यह समस्त ग्रह - समूह I
हाँ !
शक्ति हूँ मैं
परिक्रमा करते सब मेरी
किन्तु,
दूर - दूर रह I
इतनी दूर कि मैं चाह कर भी अपने अंतस का स्पंदन उन तक नहीं पहुँचा पाता I ऐ मानव ! कभी सोचा है , इतने अनुयाइयों के रहते हुए भी कितना अकेला हूँ मैं I हाँ, आज मात्र एक अग्नि - पिंड बन कर रह गया हूँ मैं I
मेरी यह शक्ति - मेरी अग्नि - मुझे कितनी तीव्रता से जला रही है आज I
शेष क्या मुझमें
मात्र,
दहन I
ऐ मानव !
काश.......
मेरे समीप आ
कोई मुझसे कहे -
"ए दैदीप्यमान सूर्य !
ऐ बंधु I
बहुत जल चुका तू अकेला
ला , अब बाँट लूँ मैं
तुझसे तेरा दाह थोड़ा "I I
ऐ मानव ! अब तू ही सोच , किस काम की मेरे मेरी यह शक्ति ………… !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ "
१९८६