शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ...!!
सोमवार, 12 दिसंबर 2011
ख्वाब
(Pic by my elder brother: Pranav Mishra)
मेरे घर के पीछे
कभी सूरज निकलता था
चहचहाती थी चिड़िया, और
महकता बाग़ होता था ........... !!
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भगत को भजते - गाते लोग
जाते थे गंगा तट की ओर
बजते थे मंदिरों में ढोल
ऐसे को कहते थे कभी भोर
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शाम को घर में सबका होना
बाबूजी संग चाय और चबेना
रात को काली मंदिर जाना
अजब से इक सुकून का होना
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शहर में बाग़ होते थे
आम के मंजर महकते थे
कभी कोयल भी गाती थी
बिना डर लोग टहलते थे
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बड़ी छोटी थी दुनिया तब
जाने पहचाने से थे सब
दलानों पर की मज्लिशैं
न होती थी दीवाली कब
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ये कैसी नींद है आयी
ये कैसा ख्वाब है आया
जगा दो कोई मुझको भाई
सुबह है फिर से जो आयी
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
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5 टिप्पणियां:
जागिये!आज वक़्त ही कहाँ है किसी के पास?शोर में चिड़ियों की चहचाहट आज किसको सुनाई देती है ?पूजा के लिए माला बनाते समय ताज़े केवरे की महक कितनी अच्छी लगती थी..आज उस केवरे के पेड़ की जगह इमारत बन गयी है ..जहाँ कोयल कूकती थी आज वो आम का पेड़ भी कट गया..पर हाँ,क्या हुआ अगर आखों में चुभन होती है..दुनिया तो आज भी छोटी ही है...इतना सुनकर तो कोई भी जाग जायेगा!:)
kolahal aur dar mein sukoon bas kavita aur yaddon se hai! acchi kavita!
uss tute kulhar mein chai aur baasi roti .. maa ki wo mitthi si lori.. kaano mein goonjati aaj bhi hai.. jaag kar kya karoon khwaab mein muskarahat to aaj bhi jeeti hai.
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