आज एक कहानी कह रहा हूँ आप सबसे l इस कहानी की नायिका हम सबों के इर्द – गिर्द
रहती है और हम रोजाना उसे देखते हैं, परखते हैं, पर समझते नहीं l विचित्र विडम्बना
है, जो सामने है उसे हम समझते नहीं और जो अदृश्य है हम उसे जानने को कोशिश करते
हैं l
इस कहानी के कथानक की न मैं कोई भूमिका कहूँगा न इस कथा का पटाक्षेप करूंगा l
यह कथा चलती रही है और चलती रहेगी; उस दिन तक जबतक या तो हम “इंसानों” का हृदय
विदीर्ण न हो जाए या फिर धरा अपनी छाती फाड़कर पुनः भूमिसुता का उद्धार न कर दे l
यह कथानक मुक्त है आपके अपने अनुभव के परिदृश्य में अपना ताना - बाना बुनने l यह
अवश्य है की इस नायिका का कोई न कोई अंक आपने जरूर अनुभव किया है l आखिर यह नायिका
हम सबों के इर्द – गिर्द ही तो है l
नायिका ने अपनी व्यथा – कथा एक “कमर्शियल प्रोजेक्ट” के लिए कही थी l वह तो
हुआ नहीं, उसे होना भी नहीं था, सपनों के रंगीन चित्रपट्ट पर सच का एक मैला -
कुचैला धब्बा ..... “हुँह” !
यदि इसे पढ़कर आपको लगता है कि यह नायिका आपके भाव को छूती है, आपसे साम्य रखती
है तो आपसे अनुरोध है कि आप इसे लाइक ना
करें, अपितु इसे शेयर कर दें l कहीं यह नायिका किसी और के भाव को झंकृत कर सके
शायद, कौन जाने !!
पर्दा उठता है ........ नायिका प्रस्तुत है, अपने
मैले - कुचैले दो टुकड़े चीथरे लपेट अपनी लाज को ढंकती l मेकअप और चमकीले वस्त्र
लेने में असमर्थ हमारी यह नायिका क्षमा भी नहीं मांग सकेगी आपसे, उसे आता ही नहीं,
कभी सीखने का अवसर नहीं मिला, किसी के पास सिखाने का वक़्त भी नहीं था l उफ्फ यह
भागती, दौड़ती, होड़ लगाती जिंदगी !! मैं नायिका की तरफ़ से क्षमा प्रार्थी हूँ l सुनिए
.....
(Pic Source: http://www.boston.com/bigpicture/2011/07/worlds_most_dangerous_countrie.html)
काली रातें काला दिन है
ये जीवन कैसा जीवन है
कब रोयी थी, कैसा दिन था
याद नहीं कब कोई अपना था ll
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मैं आयी तो, माँ तो होगी
कब कहाँ कैसी वो होगी
उस दिन वो भी रोयी होगी
गोद जब उसकी छीनी होगी ll
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जैसे तुम दीखते हो बाबू
वैसी ही दिखती हूँ मैं भी
फिर किस खोट से किस्मत फूटी?
इत – उत लुटती, हर दिन टूटी ll
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सडकें जिसको तुम कहते हो
वो मेरा अब दैर है भईया
ये ही चादर, ये ही तकिया
अँखियाँ सूखीं, सपना ना दरिया ll
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गाडी – मोटर चढ़ने वालों
एक नजर तो हमपर डालो
धूल सनी हूँ, पर इन्सां हूँ
अन्दर – बाहर बस एक खला हूँ ll
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हाथ – फैला कर, झोली लेकर
दो दाने ही तो मांगे थे
दिया ना एक निवाला तुमने
आस रही थी, छीना तुमने ll.
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कैसा रोग दिया ये तुमने
आग लगी है, दर्द बहुत है
खुद को इन्सां कहने वालों
आग तो दे देना इस तन को ll
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आग तो दे देना इस तन को ..............
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
२५.०१.२०१६