शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ...!!
शनिवार, 5 नवंबर 2011
श्रेष्ठ कौन ............... ?
कोई कहता धर्म प्रबल है
कोई कहता छल - प्रपंच
कहता हूँ मैं धर्म हीन
छल - प्रपंच संबल है ..................... !!
धर्म आधार देवगण भी
हैं छल - प्रपंच से विजयी हुए
यह पूछ महाभारत से
या फिर रामायण से ...................... !!
कहते हैं ये चीख - चीख
छल - प्रपंच किया था देवों नें
विजय देव की हुई नहीं
छल - प्रपंच विजय हुआ था ............ !!
कुरुक्षेत्र का मैदान यह देखो
कर्ण पडा था भूमि पर
था कहाँ धर्म, वो कहाँ थी नीति
था विवश कर्ण जब दलदल में ......... !!
पड़े थे भीष्म वाण - शय्या पर
सम्मुख शिखंडी था खडा
था अर्जुन का सर क्यों झुका हुआ
थी क्यों मुस्कान कृष्ण के होठों पर..... ??
खेल कृष्ण का था ये सारा
माया रची थी उसनें
कहो विजयी हुआ कौन था
कृष्ण या उसकी माया ........................ ??
पत्थर का यह सिन्धु - सेतु
कहता कथा पुराना है
हुआ राम - रावण युद्ध था
विजयी राम हुआ था ........................ !!
होड़ मची थी देवों में
वध रावण का करने को
फिरभी अडिग खड़ा था रावण
गिरा था भाई के धोखे से ................. !!
थे क्यों बिभीषण अश्रु में डूबे
थी क्यों मुस्कान राम के होठों पर
कहो विजयी हुआ कौन था
धर्म अथवा छल - प्रपंच ................... !!
हैं फिर कहते क्यों ये देव
धर्म की सदा जय है
"धर्म - धर्म" अरे ! धर्म क्या
इसके पीछे भी "माया" है ................. !!
हैं कहते जब इतिहास यही
वो छल से विजयी हुआ है
कहो फिर हुआ कौन प्रबल
धर्म अथवा छल - प्रपंच .................. ??
उत्पल कान्त मिश्र
(मेरी यह कविता किसी के धार्मिक व अध्यात्मिक विश्वास या परिधार्नाओं का अपमान करने हेतु नहीं है अपितु एक विशेष सार को इंगित करनें हेतु धार्मिक कथाओं के परिदृश्यों को आधार बना कर लिखी गयी एक कविता मात्र है. यहाँ ये मैं इस कर उधृत कर रहा हूँ, क्यों वर्षों पहले एक कवी सम्मलेन में जब मैनें इस कविता का पाठ किया था तो मेरे एक बहुत ही करीबी मित्र ने सलाह दी कि शायद इस काव्य के कुछ अंश कुछ वर्ग को अच्छे ना लगें. इसके बाद मैनें कवी सम्मेलनों में भाग लेना बंद कर दिया था और आज यह कविता मूल रूप में ही क्षमा सहित आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. आपकी टिप्पणियों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।)
उत्पल कान्त मिश्र
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14 टिप्पणियां:
चिंतन और विचार की दृष्टि से बहुत ही शशक्त रचना है कई अनसुलझे सवाल है जिनका कभी जवाब नहीं मिलता शब्द चयन भी बहुत सुन्दर है सृंगार और किया जा सकता है जैसे लयबद्धता ,यक़ीनन जो आप कर सकते है ,,दाद हाज़िर है क़ुबूल करें
निर्झर जी !
आपका बहुत आभारी हूँ की आपनें पुनश्च अपना वक़्त मेरी कृतियों को दिया ! आपकी प्रशंशा से और लिखनें की प्रेरणा मिलती रहती है !
आपकी टिपण्णी के आधार पर इस कविता का और श्रिंगार मैं अवश्य करूंगा !
सधन्यवाद
उत्पल कान्त मिश्र
utpal ji aapki is utkrist kriti ke baren me jitna bhi kaha jaye kam hoga
phir bhi aapne is behtreen prastuti se hamare man ke prangan me anginat sawal khade ker diya hai
aur inka jwab shayed hi koi de paye
sach me aapki ye prastuti aditiya hai
aapki lekhni ko mera salam
What an interesting take !!
I like the words ,the flowing Hindi - not easy to write easily !!
As long as trickery enable the underdog and vanquishes the cruel and the depraved - religion -which is the rallying point of the weak /the less able/the sinned against ; Dharma Triumphs.
"धर्म - धर्म" अरे ! धर्म क्या
इसके पीछे भी "माया" है ...
आपने सही कहा शायद किसी विशेष वर्ग को इसके विचार अच्छे न लगें ...
पर भावनाएं आपकी हैं विचार आपके हैं ....
और इसे बांधा नहीं जा सकता ...रोका नहीं जा सकता ...
आपने एक अलग नजरिये से देखा और अपने भाव रखे
इसका हर कवि को हक़ बनता है ....
पर अपनी बात के लिए आलोचना से भी तैयार रहना चाहिए ....:))
amrendra ji !
ab main kyaa kahoon ..... mere paas shabd nahin hain ..... !! aapka shukriyaa aur kosis karoongaa ki kuch aur accha likh sakoon.
saadar
utpal kant mishra "nadaan"
Varsha Ji !
Though it is little difficult to write in this format but once appreciated by people like you it is nothing. I will try improving upon.
Regards
Utpal Kant Mishra "NadaaN"
हीर जी !
आपकी दृष्टी इस ब्लॉग पर पड़ी और अपनें अपना समय "श्रेष्ठ कौन ... ?" कविता को दिया ये मेरा सौभाग्य है ! कोशिश करूंगा की ऐसा लिखता रह सकूँ जो पढनें योग्य और आप सम लेखिका से प्रतिक्रिया प्राप्त होनें योग्य हो सके !
आप सबों की आलोचनाओं से ही मेरी लेखनी में प्रगाढ़ता आ सकेगी ..... आलोचनाओं का में पल प्रतिपल अभिनन्दन करता हूँ और खुद को इस योग्य बनाने की कोशिश में हूँ की आप सम लेखिकाओं लेखकों के समय का पत्र हो सकूँ !
पर ये जो वर्ग - विशेष है ना ..... इससे डर लगता है :)) और में यूँ भी "नादाँ" हूँ :))
सादर
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
utpal bhai
behtreen rachnaa hai yadi kisi ko aapke ye vichaar acche na lagte ho.n to unhe unki sankeern vichardhara tak hi seemit rehne deejiye aap apna kaarya jari rakhe.N ............aapki rachnaa ne mujhe dharmveer bharti ki 'andhayug' ka smaran kara diyaa .....aapne jo prashna apnee rachna main uthaayein hai unkaa uttar 'andhayug' main mikl jayegaa .......aapki lekhni ko salaam
anil 'Bismil'
Lovely poem. Just goes to show that however much people harp about factors which play an important part in our lives, it's the mind which is most valuable and effective.
Anil Ji
Aapse hameshaa hi protsahan miltaa hai ... aur inhi protsahnon se likhnain ki prernaa bhi milti hai .... andhyug jaroor phir se padhoongaa ....aur main apnaa kaam kartaa rahoon ..... behad shukriya
Vishal ...... Thanks a Ton
indeed food for thought!..bahut pasand aayi aapki ye rachna..:)
Thanks Payal
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