शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ...!!
बुधवार, 26 नवंबर 2014
बुधवार, 12 नवंबर 2014
नव जीवन प्रारूप
आज काफी अरसे के बाद
अछाँदसिक कविता गहने की चेष्टा की है ! इस कविता के हर छंद का स्वरुप व प्रारूप भिन्न
है ! आप पाठकों से नम्र निवेदन है कि अपनी प्रतिक्रिया
देकर अपने अनुभव से मुझे अवगत करायें ! प्राथनीय ……।
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले
सुनकर ऐसी मीठी बातें, वह डोले है
साँसों की यह कथा निराली, अंग हो ले !
साँझ सवेरे सपने देखे
दिन अच्छे आएंगे रे
लेकर बैठा पथरायी आँखें
कथा सुनायी, अब सो ले रे !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
सूखे खेत, महाजन नाचे
फटी रजाई, ओढ़ ले भाई
राजा सब की भोज सजी है
तू भूखी सो ले रे माई !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
परदेसी बेटा क्या बोले
उसकी तो है अलग लड़ाई
एक चाकरी के चक्कर में
अपनी रोटी, जमीन गँवाई !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
प्रेम भाव सब उलझ गया है
रिश्तों के अद्भुत गोले में
समझ, समझ कर हम इतना हैं समझे
गुम हुए सारे सिरे उलझे गोले में !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
इन्सान कहाँ ? हम भीड़ हैं साहेब !
हाँकों लाठी से, न बने, तो मारो गोली
महल बना लो हम लाशों की ढेरों पे
मरघट के राजा बन, अरे तुम शान करो साहेब !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
थमा हुआ है सारा जीवन गलियारों में
देख निराली सत्ता की यह नयी लड़ाई
बंधा पड़ा समाज यहाँ सरकारी कागज़ में
जीवन अपना ! उठो, लड़ो और ले लो भाई !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
मजबूरी है,
चाकरी है,
घर की चिंता भी है,
कमजोरी की समझ बड़ी है
ताकत उनकी बहुत बड़ी है
इंसानों की फौज खड़ी है
हथियारों से धौंस जमी है
जमीं - जमीर की लूट मची है
जो सबका था अब उनका है
हम समझ रहे थे, समझ रहे हैं
मजबूरी है, इसकी अपनी भाषा है
न गीत नया न बोल नए हैं
हम पवन नहीं और पेड़ नहीं हैं !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
बहना ही जीवन है भाई, संग हो ले !
बदली थी. बदली है, बदलेगी धरती
चक्रवात बन पवन पेड़ों को ले जाएगा
वह आएगा, इक नल्हत की आवाज़ उठेगी
जय भारती, जय भारती, जय भारती !
हवा चले तो पेड़ों से क्या बोले है ?
देख निराले खेल, चलो हम बहते हैं !!!!
उत्पल कांत मिश्र "नादाँ"
१२.११. २०१४
१५:१६
गुरुवार, 6 नवंबर 2014
मन कहीं और, तन कहीं और !!
मन है कहीं और, कि तन कहीं और
व्यथा नयी है क्या यह भाई ?
कि बंधन में तो सब जकड़े हैं
भली बंधन से रीत निभायी !
नदी चले तो बंधन ना ले
पक्षी उड़ें तो मुक्त हो भाई !
पवन चले तो बंधन ले क्या?
कि तुमने मरकर उमर बितायी!
तुम कहे घुटता मैं बस मैं हूँ
दी ख़ुशी सबको ,कैसे भाई ?
दुःख तेरा, ठीक, जीवन क्या है?
रीत भली क्या कि अगन लगाई ?
भला ऐसे हो, तब अच्छे हो
कि मैं कहता हूँ, सुन लो भाई !
हाँ ! सुनी मैनें, तुम भी समझो
कथा भली न जो चलती आयी !
उत्पल कांत मिश्र "नादाँ "
नवम्बर ६, २०१४;२३:२६
शुक्रवार, 6 जून 2014
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
खुला आसमाँ था शहर हो गया है ………………… !!
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
बयारों की सरगम किरणों का छनना
जँगल था जो सब महल हो गया है। ................ !!
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
उसकी तुतली सी बोली मटकना ठुमकना
वो नन्हा फरिश्ता आदमी हो गया है ………… !!
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
मुहल्ले की रौनक संग हँसना और गाना
वो हिन्दू मुसलमाँ सा कुछ हो गया है …………… !!
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
इन्सां थे आये जहाँ हो गया है
कभी था ये अपना गुमाँ हो गया है ……… !!
अजी सोचिये क्या ग़जब हो गया है
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
६ जून २०१४
शुक्रवार, 30 मई 2014
दग्ध
"दैदीप्यमान सूर्य" ! तुम्हें देखकर न जाने कितनों के मानस पटल पर कितने प्रकार के विचार आविर्भूत होते होंगे I
………… "मुंडे - मुंडे मतिर्भिनाः" I
किन्तु एक बात अखंड है I जिसने भी तुम्हें देखा उसके मानस ने उससे कहा -
"शाक्ति " I हाँ शक्ति अभिव्यंजना ही तो है तू I
………… "अग्नि, दाह , पोषक , विनाशक I "
किन्तु "दैदीप्यमान सूर्य" ! जब भी मैनें तुम्हारी तरफ देखा , पता नहीं क्यूँ मुझे ऐसा लगा मानो एक अद्भुत , विलगित संकेत दे रहा है तू I मानो कह रहे हो मुझसे -
ऐ मानव !
क्या देखता है मेरी तरफ
किस निर्णय पे आना चाहता है ?
उसपर,
जहाँ अनेक मानव
तुझसे पहले भी पहुंचे ?
किन्तु,
अर्द्ध सत्य है मात्र वह I
हाँ ,
शक्तिशाली हूँ मैं
अग्नि है मुझमें I
भयभीत सब मुझसे
देखो I
परिभ्रमण करते मेरे
चहुँ दिश , निर्निमेष, निःशब्द
यह समस्त ग्रह - समूह I
हाँ !
शक्ति हूँ मैं
परिक्रमा करते सब मेरी
किन्तु,
दूर - दूर रह I
इतनी दूर कि मैं चाह कर भी अपने अंतस का स्पंदन उन तक नहीं पहुँचा पाता I ऐ मानव ! कभी सोचा है , इतने अनुयाइयों के रहते हुए भी कितना अकेला हूँ मैं I हाँ, आज मात्र एक अग्नि - पिंड बन कर रह गया हूँ मैं I
मेरी यह शक्ति - मेरी अग्नि - मुझे कितनी तीव्रता से जला रही है आज I
शेष क्या मुझमें
मात्र,
दहन I
ऐ मानव !
काश.......
मेरे समीप आ
कोई मुझसे कहे -
"ए दैदीप्यमान सूर्य !
ऐ बंधु I
बहुत जल चुका तू अकेला
ला , अब बाँट लूँ मैं
तुझसे तेरा दाह थोड़ा "I I
ऐ मानव ! अब तू ही सोच , किस काम की मेरे मेरी यह शक्ति ………… !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ "
१९८६
बुधवार, 19 मार्च 2014
हमने पी है अभी है शराब बाकी
हमने पी है अभी है शराब बाकी
होना क्या है हबीबों खराब बाकी …… !!
बादाकश (१) हो उठाए सवाल ढेरों
आना बस है हया का जबाब बाकी…… !!
लाया शीशा, मुसल्ला (२), कि साथ ए रब
तेरा मेरा रहा ये हिसाब बाकी ……!!
घमज़ाह (३), ज़ीनत (४), करिश्मा, यसार (५) हैं
जिस्म - ओ - जां सब, रहा क्या, तुराब (६) बाकी …!!
देखा सबने ख़जाना हिसाब करके
मेरा बस है फ़टा इक जुराब बाकी …!!
यूं होता मैं कहानी जनाब प्यारी
"नादाँ" होता, मगर है, सराब (७) बाकी …!!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मार्च १९, २०१४
०२:५३ प्रातः
(१) बादाकश: नशे में धुत्त
(२) मुसल्ला: नमाज़ पढ़ने की चटाई
(३) घमज़ाह: शोख़ी
(४) ज़ीनत: खूबसूरती
(५) यसार : ऐश्वर्य
(६) तुराब: मिट्टी, धरती
(७) सराब: भ्रम, मृगमरीचिका
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