शिव के मस्तक शव की धूली ये धरा श्मशान है / खेलो रे खेलो रंगों की होरी ये धरा श्मशान है ...!!
सोमवार, 12 दिसंबर 2011
ख्वाब
(Pic by my elder brother: Pranav Mishra)
मेरे घर के पीछे
कभी सूरज निकलता था
चहचहाती थी चिड़िया, और
महकता बाग़ होता था ........... !!
**
भगत को भजते - गाते लोग
जाते थे गंगा तट की ओर
बजते थे मंदिरों में ढोल
ऐसे को कहते थे कभी भोर
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शाम को घर में सबका होना
बाबूजी संग चाय और चबेना
रात को काली मंदिर जाना
अजब से इक सुकून का होना
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शहर में बाग़ होते थे
आम के मंजर महकते थे
कभी कोयल भी गाती थी
बिना डर लोग टहलते थे
**
बड़ी छोटी थी दुनिया तब
जाने पहचाने से थे सब
दलानों पर की मज्लिशैं
न होती थी दीवाली कब
**
ये कैसी नींद है आयी
ये कैसा ख्वाब है आया
जगा दो कोई मुझको भाई
सुबह है फिर से जो आयी
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
युगांतर
(Pic Taken from hindudevotionalblg.com)
होगा क्या ....... ??
जलेगी एक और लंका
होगा एक और युद्ध
राम और रावण का !!
किन्तु, हा हंत ! इसमें
विजयी रावण होगा
क्योंकि इस युग में लोगो
विभीषण असत्य बोलेगा
नाभि के बदले वो
मस्तिष्क बोलेगा .......... !!
होगा क्या ....... ??
लिखी जायेगी एक और रामायण
कथा कुछ उल्टी होगी
किन्तु, इस युग में लोगो
हर भक्तों के द्वारा
यही रामायण पढ़ी जायेगी
होगा क्या ....... !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
मंगलवार, 15 नवंबर 2011
साजन मोहे पीहर छोड़े चले हैं बिदेस री ....... !!
सासू रोवे आंसू पोछें, बोले न कछु और री ...... !!
बादर अईहें सावन - भादो करिबो का हम खेल री
अँखियाँ झर - झर अबहीं बरसें, समझें नहीं पीर री ........ !!
रोवत - रोवत अँखियाँ सूजीं, कहैं ना मैं सोयी री
बैरी निंदिया, साजन संग ही, गयी हें बिदेस री ..... !!
चूड़ी - बिंदिया भावे नाहीं लगे सब बिदेह री
कहे पहरूं सोना – चांदी, देखिहें हमका कौन री ....... !!
गाभिन गइया बछिया दीहें ननद कहे देख री
हे पीर अपनी कासे बोलूँ, सखी न संदेस री ....... !!
बाबुल मोसे अँखियाँ मीचें बड़े सब निर्मोह री
बोलो मइया हमका भेजें पिया घर बिदेस री ........ !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
शनिवार, 12 नवंबर 2011
बेसबब खुद को लुटाया न करो ....... !!
दर्द आँखों से बहाया न करो
कीमती खूँ यूँ गवाया न करो .......... !!
क्यों जमाने से खफ़ा हो फिरना
बेसबब खुद को लुटाया न करो ....... !!
बेकसी ले के करो ये न सफ़र
जिंदगी तुम यूँ मिटाया न करो ........ !!
मुस्कुराने की अदा यूँ रखो
लाख हों ग़म पर दिखाया न करो ..... !!
ये पराया है जहाँ सुन "नादाँ"
जान लो पर ये सुनाया न करो ........ !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
शनिवार, 5 नवंबर 2011
श्रेष्ठ कौन ............... ?
कोई कहता धर्म प्रबल है
कोई कहता छल - प्रपंच
कहता हूँ मैं धर्म हीन
छल - प्रपंच संबल है ..................... !!
धर्म आधार देवगण भी
हैं छल - प्रपंच से विजयी हुए
यह पूछ महाभारत से
या फिर रामायण से ...................... !!
कहते हैं ये चीख - चीख
छल - प्रपंच किया था देवों नें
विजय देव की हुई नहीं
छल - प्रपंच विजय हुआ था ............ !!
कुरुक्षेत्र का मैदान यह देखो
कर्ण पडा था भूमि पर
था कहाँ धर्म, वो कहाँ थी नीति
था विवश कर्ण जब दलदल में ......... !!
पड़े थे भीष्म वाण - शय्या पर
सम्मुख शिखंडी था खडा
था अर्जुन का सर क्यों झुका हुआ
थी क्यों मुस्कान कृष्ण के होठों पर..... ??
खेल कृष्ण का था ये सारा
माया रची थी उसनें
कहो विजयी हुआ कौन था
कृष्ण या उसकी माया ........................ ??
पत्थर का यह सिन्धु - सेतु
कहता कथा पुराना है
हुआ राम - रावण युद्ध था
विजयी राम हुआ था ........................ !!
होड़ मची थी देवों में
वध रावण का करने को
फिरभी अडिग खड़ा था रावण
गिरा था भाई के धोखे से ................. !!
थे क्यों बिभीषण अश्रु में डूबे
थी क्यों मुस्कान राम के होठों पर
कहो विजयी हुआ कौन था
धर्म अथवा छल - प्रपंच ................... !!
हैं फिर कहते क्यों ये देव
धर्म की सदा जय है
"धर्म - धर्म" अरे ! धर्म क्या
इसके पीछे भी "माया" है ................. !!
हैं कहते जब इतिहास यही
वो छल से विजयी हुआ है
कहो फिर हुआ कौन प्रबल
धर्म अथवा छल - प्रपंच .................. ??
उत्पल कान्त मिश्र
(मेरी यह कविता किसी के धार्मिक व अध्यात्मिक विश्वास या परिधार्नाओं का अपमान करने हेतु नहीं है अपितु एक विशेष सार को इंगित करनें हेतु धार्मिक कथाओं के परिदृश्यों को आधार बना कर लिखी गयी एक कविता मात्र है. यहाँ ये मैं इस कर उधृत कर रहा हूँ, क्यों वर्षों पहले एक कवी सम्मलेन में जब मैनें इस कविता का पाठ किया था तो मेरे एक बहुत ही करीबी मित्र ने सलाह दी कि शायद इस काव्य के कुछ अंश कुछ वर्ग को अच्छे ना लगें. इसके बाद मैनें कवी सम्मेलनों में भाग लेना बंद कर दिया था और आज यह कविता मूल रूप में ही क्षमा सहित आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ. आपकी टिप्पणियों का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।)
उत्पल कान्त मिश्र
शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011
यूँ कि बस पीता चला ग़ालिब सहर तक
(Pic by my elder brother; Pranav Mishra)
यूँ कि बस पीता चला ग़ालिब सहर* तक
तिश्नकामी* ही मिली फिर सर - बसर तक ...... !!!
देखिये सब है रवायत - ओ - अनासिर*
नींद में ही कट चली मंजिल शहर तक .......... !!!
पेंच - ओ - ख़म*, हुस्न , उल्फत और मुहब्बत
जुल्फ यह अपनी न यूँ झटको कमर तक ....... !!!
है तिरा हुस्न - ऐ - रफी* जलवाफरोशी
सर झुकाया क्या मिला दीन - ओ - जबर* तक ..... !!!
सुन उफक* में यूँ न इतरा इस शहर में
इक सफर है ये ज़फर से ले ज़रर* तक ............ !!!
ढल रही होगी कहीं मय तजकिरा* में
साक़िया क्या साथ देगी यूँ उमर तक ............. !!!
खोजता हूँ इस जहाँ में पाक रिश्ता
डब - डबाती ही रही आंखें बसर* तक .............. !!!
इक खुशी है मर गई तो क्या नया है
आसमां भी घट रहा है उस कमर* तक .......... !!!
ख़ाक के पुतले सभी हैं पैकरों* में
राख ही होंगे यहाँ अफरात - जर* तक ........... !!!
था बड़ा वाइज़* बना तू होश अब कर
कैफियत रख बस कि "नादां" पी नज़र तक ..... !!!
उत्पल कान्त मिश्र "नादां"
दिल्ली
* सहर: तक
तिश्नकामी: प्यास
रवायत - ओ - अनासिर: जिंदगी के नियम
पेंच - ओ - ख़म: अदाएँ
हुस्न - ऐ - रफी: चढ़ता हुआ हुस्न
दीन - ओ - जबर: राजा और रंक
उफक: शिखर (जीवन कि बुलंदियाँ)
ज़रर: कमजोरी
तजकिरा: चर्चा
बसर: उम्र
कमर: चाँद
पैकरों: शरीर
अफरात - जर: सोने जवाहरात
वाइज़: विद्वान्
YuuN ke bas peetaa chalaa Ghalib sahar तक
tishNakaamii hi mili phir sar – b – sar tak ………!!
dekhiye sab hai rawaayat – o – anaasir
neeNd main hi kat chalii manzil shahar tak ……… !!
pench – o – kam, husn, ulfat aur muhabbat
julf yah apni Na jhatko kamar tak ………………… !!
hai teraa husn – e – rafii jalwaafaroshii
sar jhukaayaa kyaa milaa deen – o – zabar tak ……!!
sun ufaq main yuun naa itraa is shahar main
ik safar hai ye zafar se le zarar tak ……………….!!
dhal rahi hogii kahin may tazkiraa main
saakiyaa kyaa saath degii yuun umar tak …………!!
khojtaa hoon is jahaN maiN paak rishtaa
dab – dabatii hii rahii aankhaiN basar tak ………… !!
ik khushii hai mar gayii to kyaa nayaa hai
aasmaaN bhi ghat raha hai us qmar tak …………… !!
khaak ke putle sabhii haiN paikaroN main
raakh hi honge yahaN afraat – Zar tak ……………!!
thaa badaa waaiz banaa tu hosh ab kar
kaifiyat rakh bas ke “NadaaN” pee nazar tak ……… !!
Utpal Kant Mishra “NadaaN”
Delhi .
बुधवार, 19 अक्टूबर 2011
मरासिम
http://www.freedigitalphotos.net/images/view_photog.php?photogid=2522
(Pic By: sakhorn38)
"आसमान में देखा है
वो कमर" ................... !!
"हुं" ..................... !!
"कितना भोला दिखता है न
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ........... !!
"हुं" ..................... !!
"इसके आते ही क्यूँ
मन में वेग होता है" ................ !!
"उन्न" .............. !!
"ये पूरा होता है तो
क्यों मुझमें उन्माद आता है" ............ !!
"क्या कहते हो
तुमको भी
मैं तो चुप ही थी
पता नहीं तुम क्या सोचोगे" ................ !!
"कहती तो, कभी अपनें मन की बात
क्यों न बनती हो तुम, मरासिम" ................ !!
"मैं, मरासिम".................... ??
"हाँ ! मरासिम !
श्वेत, सुन्दर, शीतल" ................ !!
"ओफ, ओ "...............!!
"अंतर है थोड़ा सा बस
आसमान के और मेरे मरासिम में " ............ !!
"हुं, हुं " ....................... !!
"तुम्हारी धवल चाँदनी में
मन रुकता है, उद्वेग थमता है" .............. !!
"बाप रे" ....................... !!
"वो देखो, इस नदी की लहरों को
कल - कल, कुल - कुल कर बलखाती
तुमको ही तो देख रही हैं" ........................... !!
"......................."
"मैं हूँ, नदी है, तुम हो:
और है दूर, वो सुनहरा चाँद
कितना शांत है सब
शीतल ! निर्मल ! तुम से ..................... !!
"चलो ना, अब चलते हैं
अन्धेरा भी आ गया है
नरभक्षी अब निकलेंगे
हम कैसे पहचानेंगे
आदमी की खाल पहन
हमसे, तुमसे ही दिखते हैं
चलो ना, अब चलते हैं" ......... !!
"ह्म्म्मम्म
काश ! होती धवल चाँदनी
इस धरती पर, तुमसी
मरासिम" ...................................... !!
उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई, १५:१२
१९/११/२०११
गुरुवार, 13 अक्टूबर 2011
भूख लगी है साहेब .......... !!
जानता हूँ
कितने विद्वान और
कितने विकसित हैं आप
और जानता हूँ
कितनें उदार ह्रदय
कितनें विकासशील हैं
आप और आपके विचार .......... !!
कृतार्थ हूँ
आपकी दानशीलता का !
आपका हमारी हालत पे
चिंताग्रस्त होनें से
परेशान हूँ मैं
कि कहीं आपकी पेशानी पे
शिकन न आ जाये
दर्द होगा आपको
आदत नहीं है न
हम तो शिकन लेकर ही
पैदा हुए हैं, मरने को ............. !!
बड़ी अच्छी लगती हैं
आपकी बातें
जो बताती हैं
हम कैसे प्रगति करेंगे
पर क्या करें
अच्छी तो लगीं
समझ न आयीं
भूख जो लगी थी
कम्बख्त पेट को कहाँ पता था
आप हमारे हित कि सोच कर
परेशान हो रहे हैं .................. !!
हमें ये भी कहाँ पता था, साहेब
कि, बुद्धि भी पेट के बाद
काम करती है
बस भूख लगी है साहेब .......... !!
हम कृतार्थ हैं ........................ !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई
शनिवार, 8 अक्टूबर 2011
जज्बे
http://www.freedigitalphotos.net/images/view_photog.php?photogid=172 (Pic By: Maggie Smith)
घर की छत पर खड़े
सर्दियों की धूप सेंकते
सिगरेटे के छल्लों में
दिल का गुबार खोजते
आती - जाती गाड़ियों को
देखता, सोचता था मैं .................. !!
इस गुनगुनी धूप में
कैसी नरमी सी है
जो हड्डियों को सहलाती है
जैसे माँ का आँचल हो
जो दिल को सहलाता था
अचानक याद आई
वो सारी बातें
माँ की गोद, गाँव की हरियाली
और दूसरी सिगरेटे जलाते हुए
देखनें लगा मैं,
कंक्रीट का जंगल
दिल के गुबार नें कहा
कहाँ गया वो दिल
जो बसता था
हर गली, हर जज्बे में
यहाँ तो दिलों में भी
कंक्रीट का जंगल है
चाय की चुस्की से
व्हिस्की की बोतल तक
खोजता रहा दिल का सकून
और दिल को बहलाने को आखिर
खड़ा हो गया मैं
छत की धूप में
और देखनें लगा
आती - जाती गाड़ियाँ
होठों पे दबा सिगरेटे
और मुंह से निकलता धुआं ............... !!
उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई
मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011
दिल की बात मैं यहाँ करता हूँ ......... !!
http://www.freedigitalphotos.net/images/view_photog.php?photogid=1256 (Picture By Evgeni Dinev)
लो फिर आज इक ग़ज़ल कहता हूँ
उनकी बात इक दफ़े सुनता हूँ ........... !!
है ये रात फिर बड़ी सी लेकिन
ख़स - ओ - ख़ाक* मैं लिए चलता हूँ .... !!
मैं चुप - चाप ही चला हूँ अबतक
पिन्हा* दर्द को लिए फिरता हूँ ............. !!
हैं बाज़ार में खड़े बन - ठन के
उनके हाल को समझ रोता हूँ ............... !!
देखो तुम कि हो ब'ह़र - ओ - मिसरे*
दिल की बात मैं यहाँ करता हूँ ......... !!
उफ़ ! इस चाँद की ख़लिश को सहना
अपने हाल पे बहुत हंसता हूँ ........... !!
रहने दो कि ढल गयी जां "नादाँ"
बाकी अब न कुछ चलो सोता हूँ ............ !!
उत्पल कान्त मिश्र "नादाँ"
मुंबई, अक्टूबर ४, २०११
* ख़स - ओ - ख़ाक: धूल और राख
पिन्हा: छुपा हुआ
ब'ह़र - ओ - मिसरे: ग़ज़ल का मीटर और उसमें बंधे शेर
रविवार, 2 अक्टूबर 2011
चलो, कुछ लिखते हैं
Image: photostock / FreeDigitalPhotos.net
चलो, काग़ज़ – कलम निकालो
कुछ लिखना है
सदियों से लिखी जा रही है
बातें ……….
हम भी लिखते हैं
कागज़ घिसते हैं
कटने दो पेड़ों को
पढनें दो लोगों को
फिर वो कलम उठाएंगे
चश्मे संभालेंगे
और
लग जायेंगे
समीक्षा में , विवेचना में
त्रुटियाँ निकाली जायेंगी
शब्द खोजे जायेंगे
काव्य की हर वो धारा
जो लेखनी में नहीं
वो सब निकाले जायेंगे
बहस होगी , इस्सिलाह होंगे
सब होगा
बस बातें गुम हो जायेंगी
चलो , काग़ज़ – कलम निकालो
कुछ लिखते हैं …………… !!
उत्पल कान्त मिश्र
मुंबई , सितम्बर १९ , २०११
शनिवार, 1 अक्टूबर 2011
अजीब शख्श था
अजीब शख्श था
बाल बिखरे
बढ़ी दाढ़ी
और उनसे झांकते चंद सफ़ेद बाल
धूल सनें कपडे
धंसी हुई आंखें
और उनसे झांकते बिखरे ख्वाब !!
अजीब शख्श था
मिट्टी कुरेदता
देखता , सोचता
जैसे अपना अस्तित्व ढूंढता हो
खाली आँखों से
आसमान को ताकता
जैसे सूरज से कुछ पूछ रहा हो !!
अजीब शख्श था
हंसता भी था
रोता भी था
आती जाती गाड़ियों से बेखबर
पेशानी पे भाव
कई तरह के
और चेहरा सपाट , भाव हीन !!
अजीब शख्श था
मैं रुक गया
और पूछने गया
कहनें लगा, चीथरे ढूंढता हूँ
अपनें बच्चों के
और अपनें बचपन के
यहीं कहीं थे
और फिर कुरेदने लगा मिट्टी !!
अजीब शख्श था ........................... !!
उत्पल कान्त मिश्र
३०/०९/२०११ , मुंबई